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Editorial. संवेदन शून्य समाज


संवेदन शून्य समाज ऐसा लग रहा है जैसे कालचक्र ने अपनी गति बहुत तेज कर दी सामान्य से लेकर असामान्य सभी घटनाएं विभिन्न रूपों में बड़ी तीव्रता के साथ घटित होती दिखाई दे रही हैं,जिनका प्रभाव भिन्न-भिन्न वर्गों के ऊपर भिन्न-भिन्न  पड़ रहा हैं,अर्थात एक वर्ग पर उसका प्रभाव कुछ और है। दूसरे और तीसरे वर्ग पर उसका प्रभाव कुछ अलग ही प्रतीत हो रहा है,जैसे समाज और सामाजिक परिवेश में संवेदनाओं का अंत हो गया हो मानव हृदय के भीतर उत्पन्न होने वाली संवेदनाएं अचानक से कहीं जाकर सो गई हो अब चाहे वह पैदल चलते मजदूर यात्री हो या कहीं निर्जल सड़क पर दुर्घटना का शिकार कोई व्यक्ति तड़पता हुआ पड़ा हो या फिर सामाजिक परिवेश में होने वाले आपराधिक षड़यन्त्रों के शिकार व्यक्ति के प्रति जनमानस की संवेदनाएं कहीं सो सी गई है,आज मनुष्य मनुष्य के लिए ही अपरिचित सा हो गया है, ऐसे माहौल में वसुधैव कुटुंबकम की व्याख्या करना भैंस के आगे बीन बजाने के बराबर होगा ऐसी तथ्य पूर्ण बातें आज समाज के अंदर वे मायने हो गई है, कहीं ना कहीं समाज की इस संवेदना शून्यता के पीछे न्यायपालिका की असफलता एक बहुत बड़े कारण के रूप में सामने आई है,और जो दूसरा बहुत बड़ा मुख्य कारण है, उसे हम भ्रष्टाचार के नाम से जानते हैं, जिसकी जड़ें समाज के हर वर्ग में बहुत ही गहरे तक समाई हुई है, इसलिए आज हम भ्रष्टाचार पर वार्ता नहीं कर सकते हां छोटे-छोटे कुछ बिंदुओं के बारे में चर्चा जरूर करेंगे जो समाज के संवेदनहीनता के प्रति उत्तरदाई है, समय से पीड़ित को न्याय ना मिलना एक बहुत बड़ा कारण है,जिससे समाज की संवेदन शून्यता को बहुत बड़ा बल मिला दूसरा मुख्य कारण है,हमारी विक्षिप्त शिक्षा नीति जो सोचने और समझने में पूर्णतया अक्षम है,केवल और केवल उदर पूर्ति के साधनों के जुटाने में ही सहायक है, और तो और इस शिक्षा पद्धति में हमारे किशोरों की बौद्धिक व्यवस्था चौपट कर डाली उन्हें आचार व्यवहार ना तो कोई समझ है,और ना ही वह समझना चाहते हैं,इससे भी सामाजिक संवेदन शून्यता का ग्राफ ऊपर ही बढ़ता है। तीसरा प्रमुख कारण बीमार आर्थिक आवंटन अर्थात समग्रता में नागरिकों के बीच देश की अर्थव्यवस्था के चलते जो आर्थिक बटवारा है, वह अपने शुद्ध रूप में नहीं है,अर्थात जिसे उसके काम के 10 रुपये मेहनताना मिलना चाहिए उसे 40 रुपये दिए जा रहे हैं,और जो व्यक्ति 40 रुपये का काम कर रहा है उसे 10 रुपये दिए जा रहे हैं या मिल रहे हैं,जिससे समाज में एक सामाजिक असमानता अंकुर जन्म लेता है,और जैसे-जैसे यह बड़ा होता है, संवेदनशीलता को जन्म देता है,और यहां पर यह कहना न गलत होगा की इस संवेदन शून्यता के चलते ही भ्रष्टाचार का वृक्ष दिन पर दिन और मजबूत फैलता चला जा रहा है,और बात यहां तक बढ़ गई है, की सरकारों द्वारा जनहित में किए जाने वाले सभी कार्य को लेकर जनता में एक हमेशा चर्चा रहती है, वास्तविक और जरूरतमंद लोगों को उनका लाभ मिलेगा भी या नहीं इससे भी सामाजिक संवेदनशीलता पल्लवित और पोषित होती हैं,किसी का किसी पर कोई विश्वास नहीं आज नेता जनता पर विश्वास नहीं कर सकता जनता नेता पर विश्वास नहीं करती यह दोनों न्यायपालिका पर विश्वास नहीं कर पाते आपस में अविश्वास का बढ़ता पराक्रम आखिर किस को हर आएगा कहीं ना कहीं यह चोट हमारे देश कोही पहुंचाएगा आज आदमी आदमी के काम नहीं आता यदि आता भी है, बहुत ही सोच समझकर और बीच की दूरी को बढ़ाकर आखिर हम कहां जा रहे हैं,हमें आपस में तालमेल बिठाना होगा छोटे-छोटे स्वार्थों से उबर कर एक दूसरे से कंधा मिलाना ही होगा नहीं तो पिछले 1000 वर्षों की तरह हम फिर किसी अनैतिक सत्ता के गुलाम हो जाएंगे और अपनी पहचान खो देंगे यह सोचना हमारा काम है,हमें ही इस पर स्वयं को समय के अनुरूप ढालना होगा अपने लिए अपने बच्चों के लिए अपनी जात के लिए अपने धर्म के लिए और अपने देश के लिए यह सब करना ही होगा।


एडीटर ;- डॉ. आर्य प्रकाश मिश्रा

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Shushil Nigam

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