सांस्कृतिक मूल्यों को सँजोने का कार्य करती है मातृभाषा
21 फरवरीअंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस: अतुल कोठारी
कानपुर। 21 फरवरी अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के रूप में मनाया जाता है। वर्ष 1952 में इसी दिन बांग्लादेश तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान के ढाका विश्वविद्यालय, जगन्नाथ विश्वविद्यालय और चिकित्सा महाविद्यालय के छात्रों द्वारा बंगला को राष्ट्रभाषा घोषित किए जाने हेतु आंदोलन किया था। जिसमें अनेक छात्रों ने पुलिस की गोलियों का शिकार होकर अपनी मातृभाषा के लिए लिये प्राण न्योछावर किये थे। मातृभाषा के लिये दिए गए इसी बलिदान की स्मृति में यूनेस्को ने वर्ष 1999 में इस दिवस को अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के रूप में मनाने की शुरुआत की थी, जिसे संयुक्त राष्ट्र संघ ने 2008 में स्वीकृति दी। यूनेस्को अनुसार भाषा केवल संपर्क, शिक्षा या विकास का माध्यम ना होकर व्यक्ति की विशिष्ट पहचान है, उसकी संस्कृति परंपरा एवं इतिहास का कोष है। भाषा के इसी महत्व को दर्शाने के लिए यूनेस्को ने वर्ष 2019 को स्वदेशी भाषाओं का वर्ष ( The Year Of Indigenous Languages) के रूप में मनाएगा। मातृभाषा के महत्व के संदर्भ में यूनेस्को कहता है कि मात्रभाषा ज्ञान, शांति ,अधिकार समावेश एवं विविधता हेतु आवश्यक है। हर भाषा अपने साथ एक विशिष्ट ऐसी ज्ञान परंपरा का संवहन करती है एवं राष्ट्रों के विकास प्रक्रिया में सहायक बन शांति को बढ़ावा देने का कार्य करती है। देश के लोगों को शिक्षा आदि जैसे मूलभूत अधिकार प्रदान करती है, तथा इसमें समाज के सभी वर्गों का समावेश सुनिश्चित करती है। इस प्रकार समाज के सांस्कृतिक मूल्यों की विरासत को संजोने का कार्य भी मातृभाषा ही करती है। मात्र भाषा के संदर्भ में कुछ विद्वानों का मानना है कि “मां” की भाषा ही मातृभाषा है यह पूर्ण सत्य नहीं है, मां की भाषा के साथ साथ बच्चे का शैशव/बचपन/बाल्यावस्था जहां बीतता है, उस माहौल में ही जननी भाव है। जिस परिवेश में बच्चे पलते हैं वहां जो भाषा वह सीखता है वह भाषा उस बच्चे की मातृभाषा के कहलाती है। यहाँ परिवेश से अर्थ परिवार एवं उस परिवार के सांस्कृतिक मूल्यों से है।हमारे देश में भाषा के प्रति अनेक प्रकार के भ्रम फैले हैं, जिसमें एक अत्यंत महत्वपूर्ण भ्रम है कि अंग्रेजी विकास की भाषा है। जबकि इस बात से यूनेस्को सहित अनेक संस्थानों के अनुसंसाधन ये सिद्ध कर चुके हैं कि अपनी भाषा में शिक्षा से ही बच्चे का सही मायने में विकास हो पाता है। इस हेतु मातृभाषा में शिक्षा यह महत्व पूर्ण रूप से वैज्ञानिक दृष्टि है। इसी मत को भारत के राष्ट्रीय मस्तिष्क अनुसंधान केंद्र तथा शिक्षा संबंधित सभी आयोगों आदि ने भी माना है। भारतीय वैज्ञानिक सीवी श्रीनाथ शास्त्री के अनुसार अंग्रेजी माध्यम से इंजीनियरिंग की शिक्षा प्राप्त करने वाले की तुलना में भारतीय भाषाओं के माध्यम से पढ़े छात्र अधिक उत्तम वैज्ञानिक अनुसंधान करते हैं। महात्मा गांधी ने कहा था “विदेशी माध्यम ने बच्चों के तंत्रिकाओं पर भार डाला है” उन्हें रट्टू बनाया है। वह सृजन के लायक नहीं रहे.विदेशी भाषा ने देशी भाषाओं के विकास को बाधित किया है। इसी संदर्भ में भारत के पूर्व राष्ट्रपति एवं महान वैज्ञानिक डॉ अब्दुल कलाम के स्वयं के उच्चारित शब्दों का यहाँ उल्लेख आवश्यक हो जाता है, मैं अच्छा वैज्ञानिक इसलिए बना क्योंकि मैंने गणित और विज्ञान की शिक्षा मात्रभाषा में प्राप्त की। इसी प्रकार माइक्रोसॉफ्ट के सेवानिवृत्त वरिष्ठ वैज्ञानिक संक्रांत सानू ने अपनी पुस्तक में दिए गए तथ्यों में यह कहा है कि विश्व में सकल घरेलू उत्पाद में प्रथम पंक्ति के 20 देश सारा कार्य वे अपनी भाषा में ही कर रहे हैं। जिसमें 4 देश अंग्रेजी भाषी है, क्योंकि उनकी मातृ भाषा अंग्रेजी है। वह आगे लिखते हैं कि विश्व के सकल घरेलू उत्पाद में सबसे पिछड़े हुए 20 देशों में विदेशी भाषा में यह अपनी और विदेशी दोनों भाषा में उच्च शिक्षा दी जा रही है तथा शासन प्रशासन का कार्य भी इसी प्रकार किया जाता है। उपयुक्त कथन की सत्यता को प्रमाणित करने की दृष्टि से भारतीयों को प्राप्त नोबेल पुरस्कार और अपनी भाषा में शिक्षा देने वाले देश इजराइल, जापान, जर्मनी आदि के विद्वानों द्वारा प्राप्त नोबेल पुरस्कारों की तुलना करने से स्थिति अधिक स्पष्ट हो जाती है।
स्वदेशी इंडीजीनस भाषाओं के अनन्य महत्व के बावजूद हम अपनी भाषाओं के संवर्धन में पिछड़ रहे हैं। 1961 की जनगणना में भारत में 1652 भाषाएं दर्ज है। 1971 तक यह आंकड़ा 808 पहुंच गया था। पीपल्स, लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया 2013 के अनुसार पिछले 50 वर्षों में 220 से अधिक भारतीय भाषाओं को खो दिया गया है तथा 197 और भाषाएं लुप्तप्राय होने की कगार पर है।भारत सरकार के आंकड़ों के हिसाब से देश में 121 आधिकारिक भाषाएं हैं (2011 की जनगणना)। वहीँ पीपल्स लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया के अनुसार भारत में 780 भाषाएँ मौजूद हैं।लगभग 100 और भाषाओं के अस्तित्व में होने की संभावना भी जाहिर की गई है।महाराष्ट्र की वदारी एवं कोल्हाटी, कर्नाटक, तेलंगाना की गोल्ला गोसारी ऐसी भारतीय भाषाओं के उदाहरण हैं जिनके बोलने वालों की संख्या 10000 से कम होने की वजह से भाषा सूची से बाहर है, जबकि अधुनि, दिचि,घल्लू, हेल्गो तथा बो कुछ ऐसी भाषाओं के नाम है जो देश में विलुप्त हो चुकी है। 197 लुप्तप्राय भाषाओं में से भारत में केवल बोडो और मैतई को अधिकारिक दर्जा प्राप्त है क्योंकि उनके पास लेखन प्रणाली है। भारत जैसे देश में जहां ज्ञान परंपरागत रूप से पीढ़ी दर पीढ़ी मौखिक ही चली आई है ऐसे में लेखन प्रणाली के अभाव में भाषा के रूप में गणना नहीं करना देश की सांस्कृतिक ऐतिहासिक वास्तविकताओं से परे है। इस प्रकार के नियमों से भी अनेक भाषाएं लुप्तप्राय हो रही हैं, भारत सरकार को अविलंब ऐसे नियमों पर पुनः विचार कर समीक्षा करना चाहिए, ताकि 2021 की जनगणना में सुधार करके वास्तविक जनगणना हो सके। मातृभाषा केवल ज्ञान प्राप्ति ही नहीं बल्कि मानव अधिकार संरक्षण, सुशासन, शांति निर्माण, सामंजस्य और सतत विकास के हेतु एक आधारभूत अहर्ता है। इसी प्रकार सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक विकास शांतिपूर्ण सह अस्तित्व और समाज में सामंजस्य के लिए स्वदेशी भाषाएं महत्त्व रखती है। उनमें से कई के विलुप्त होने का खतरा है, विविधता में हमारे विश्वास के बावजूद हम विशेष रूप से भाषाओं और बोलियों के संदर्भ में इनका संवर्द्धन करने में सक्षम नहीं दिख रहे हैं। इसी कारणवश संयुक्त राष्ट्र
ने 2019 को स्वदेशी (इंडीजीनस) भाषाओं का वर्ष घोषित किया, ताकि उन्हें संरक्षित, पुनर्जीवित करने और बढ़ावा देने के लिए तत्काल कार्यवाही को प्रोत्साहित किया जा सके।
रिपोर्टर इन चीफ;- सुशील निगम