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संपादक की कलम से – अवसर ,औचित्य एवं सारगर्भिता

 

 
संपादक की कलम से – अवसर,औचित्य एवं सारगर्भिता

भारतवर्ष में राजनीति एवं राजनीतिकरण को लेकर यूँ तो अनगिनत लेख लिखे गए लेकिन शायद आज तक किसी भी लेखक या किसी भी विचारक  की कलम से राजनीति एवं राजनीतिक दलों के मध्य होने वाली गतिविधियों को लेकर स्पष्ट विचारधारा एवं अभिव्यक्ति का संप्रेषण करने में या तो असमर्थता रही या जानबूझकर नहीं किया गया।
दोनों ही परिस्थितियों में एक ही कारण प्रतीत होता है जिसे राजनैतिक लाभ के नाम से जाना जाता है।पत्रकारिता भी इस अछूत रोग से संक्रमित होने से ना बच सकी है। पत्रकारिता ने भी अपने हितलाभो को किसी भी कीमत पर सर्वोपरि रखा है,जहां निष्पक्षता एवं राष्ट्रहित की बात सोचनी चाहिए वहां पर स्वयं के हित लाभ की बात ही सोची गई। जिसके दूरगामी परिणाम सामने आते रहे हैं आ रहे हैं और आते रहेंगे।

बहुतायत में देखने को मिलता है कि बड़ी राजनीतिक पार्टियों के बीच राजनेताओं का आवागमन संभव हो जाता है, जबकि प्रत्येक राजनीतिक दल के अपने नियम कानून, एजेंडे लगभग सब कुछ अलग ही होता है सिर्फ सत्ता की चाहत को छोड़ दें।क्योंकि सत्ता सभी राजनीतिक दलों की प्रमुख जरूरत है इसलिए सत्ता की हसरत को छोड़कर बाकी सब अपना अपना ही होता है।आखिर यह सब अपना अपना छोड़कर पराये पराये को अंगीकार करने तक की प्रक्रिया में प्रमुख उद्देश्य क्या होता होगा तथ्य अत्यंत विचारणीय है और संदेहास्पद भी क्योंकि जिसका गंतव्य पूरब हो वह पश्चिम की ओर जाने वाले राहगीर का हमसफर कैसे हो सकता है, अचानक से किसी भी व्यक्ति में आमूल चूल परिवर्तन ना तो प्राकृतिक है और ना ही संभव है यानी बिना परिवर्तित हुए स्वयं को एक बड़े परिवर्तन में प्रदर्शित करने की चाह का उत्पन्न होना क्या किसी बड़े खतरे का संकेत होता है? क्या ऐसा नहीं है कि मात्र स्वयं के हितलाभो को ध्यान में रख एक दल की गरिमा को नीलाम कर स्वयं को प्रतिस्थापित करने का एक असफल प्रयत्न है?

चलो मान लिया बिन पेंदी का लोटा लुढ़कते लुढ़कते लुढ़क गया और कहीं का कहीं जा रहा । लेकिन यक्ष प्रश्न यह उठता है कि एक भिन्न उद्देश्य वाले भिन्न एजेंडे वाले राजनीतिक दल में उसकी स्वीकार्यता कैसे उपलब्ध हो सकती है? बेर केर का संग कैसे हो सकता है? सांप और नेवला साथ कैसे हो सकता है? बिल्ली चूहे को अपनी गोद में कैसे बिठा सकती है?यह कानून तो जंगलराज में भी अप्राकृतिक है अलभ्य है ,असंभव है  ।तो क्या लोकतंत्र की यह दशा जंगलराज से भी गई बीती है? यह तथ्य अत्यंत सोचनीय और विचारणीय है अर्थात परिगमन एवं स्वीकार्यता दोनों पर ही जो प्रश्न चिन्ह है? अत्यंत महत्वपूर्ण है  ।आखिरकार किन मूल्यों पर कोई अपनी आत्मा का विक्रय कर अतिक्रमण को संभव कर सकता है और वो कौन से मूल्य होंगे जिनपर ऐसी स्वीकार्यता सुंदर प्रतीत होती होगी?
मात्र सत्ता की आकांक्षा के लिए इतनी बड़ी कीमतें चुकाने की गतिविधि को क्या नाम दिया जाना चाहिए,यह अन्वेषण का प्रमुख बिंदु हो सकता है और पत्रकारिता के सिवा कोई अन्वेषण कर भी नहीं सकता । वर्तमान परिप्रेक्ष्य में यदि देखा जाए तो पत्रकारिता भी ऐसे बिंदुओं पर स्वयं को बचाती नजर आएगी। तो आखिर सत्य का सूरज उगेगा कहां से? कहीं ना कहीं लोगों द्वारा बनाए गए उद्देश्य झूठे है एक प्रदर्शन मात्र है वरना सत्य कभी आवरण से आच्छादित नहीं होता । ऐसी ही सामाजिक व्यवस्था के द्वारा सत्य के उजाले पर स्वार्थ के इतने आवरण अच्छादित कर दिए जाते हैं कि उस सत्य के अनावरण की  प्रतिक्रिया में कई निरपराध शक्तियों के रक्त बिंदु शरीर से मुक्त होकर धरती की छाती पर बिखर जाते हैं ।इतिहास कई उदाहरणों से इस कथन की पुष्टि करता है नाम कई हो सकते हैं चाहे वह सुभाष चंद्र बोस हो या फिर चंद्रशेखर आजाद ।

(Editor:- Dr. Arya Prakash Mishra)


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Shushil Nigam

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