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उत्तर प्रदेश : दरअसल कानपुर के प्रतिष्ठित थाने के थानेदार ने लूट के चक्कर में तीन लोगों को उठाया, डराया,धमकाया,जम के रगड़ा ।लेकिन किसी ने लूट नहीं कबूल की ।एक को छोड़ा भी, लेकिन उसके एवज में 14000 की फसल काटी ।लेकिन अब कि उन तीनों ने लूट ही नहीं की थी, फर्जी केस में फसाया गया तो माल बरामदगी के लिए पुलिस ने किसी ज्वेलर्स के यहां से माल खरीदवाया तो थानेदार साहब ने तीन एस आई रैंक के अधिकारियों को उसी 14000 में से और सामान लाने को कहा। तीन में से दो जाते हैं और छह सात हजार का सामान जिसमें एक कट्टा भी शामिल है खरीद लाते हैं बाकी के पैसे का होता है “बंदरबांट”। लेकिन वह बंदरबांट दो के ही बीच में हुआ तीसरा खाली रह गया। अब तीसरे ने पसड़ मचा दी और उस पसड़ में दो में से एक रोने लगा कि मैंने तो कुछ लिया ही नहीं फिर मुझ पर आरोप क्यों? हालांकि उसने यह कबूल किया कि कुछ पैसा पीने पिलाने में खर्च हुआ लेकिन अब पिया तो साहब ने भी होगा तो निर्दोष कैसे? बाकी का पैसा माना कि एक ही डकार गया जो भी बचा हो 2000,3000,6000 इस से मतलब नहीं ।अब तीसरे ने जो पसड़ मचाई थी उसका रायता पूरे विभाग में फैल गया। अब इन तीनों के बीच में फैसला कौन कराएगा?पहले ने तो कहा चुप रहो, शांत रहो,बैठे रहो,कुछ नहीं होगा। जब जेल से छूटकर अपराधी आएंगे तो देखा जाएगा। पसड़ मचाने वाला आग लगाने की तैयारी में बल्कि यूं कहे कि उसने आग लगा ही दी झुलस गए दयाशंकर वर्मा जी। मतलब साफ है कि तीनों पुलिस के एसआई में से या तो दया शंकर जी बिल्कुल सीधे हैं या बली के बकरे बनाए जा रहे हैं ?या तो सामान खरीदने गए दोनों शख्स बेईमानी का धंधा भी इमानदारी से नहीं करते। जबकि बेईमानी का धंधा इमानदारी से होना चाहिए। अब पसड़ तो इसी बात की है खाने को नहीं मिला तो खाने भी नहीं देंगे। मतलब हम भी चैन से नहीं तो तुम भी चैन से नहीं।
इस संपूर्ण प्रकरण के सभी दोषी परोक्ष रूप से किए गए अपराध की श्रेणी में आते हैं। जबकि एसआई दयाशंकर वर्मा एक फोन कॉल करके फंस गए ।मतलब इनका प्रत्यक्ष अपराध साबित होता है। अब समझने वाली बात यह है कि तत्कालीन एसओ बर्रा संजय मिश्रा के बिना आदेश या बिना मर्जी कहे किसी भी एसआई की हैसियत नहीं है कि वह ऐसे प्रकरणों में फोन कॉल कर पैसे की डिमांड करें। अपराधी को छोड़ देने के लिए कहीं ना कहीं पूरा महकमा इस प्रकरण के लिए जिम्मेदार है।
यदि जिम्मेदार सब है तो सजा एक को ही क्यों? अपनी ही जांच में अपने ही विभाग के लोगों के साथ पक्षपात क्यों ?जब विभाग के अंदर के यह हाल हैं तो बाहर का आलम क्या होगा?
(एडीटर इन चीफ : सुशील निगम)
उत्तर प्रदेश : दरअसल कानपुर के प्रतिष्ठित थाने के थानेदार ने लूट के चक्कर में तीन लोगों को उठाया, डराया,धमकाया,जम के रगड़ा ।लेकिन किसी ने लूट नहीं कबूल की ।एक को छोड़ा भी, लेकिन उसके एवज में 14000 की फसल काटी ।लेकिन अब कि उन तीनों ने लूट ही नहीं की थी, फर्जी केस में फसाया गया तो माल बरामदगी के लिए पुलिस ने किसी ज्वेलर्स के यहां से माल खरीदवाया तो थानेदार साहब ने तीन एस आई रैंक के अधिकारियों को उसी 14000 में से और सामान लाने को कहा। तीन में से दो जाते हैं और छह सात हजार का सामान जिसमें एक कट्टा भी शामिल है खरीद लाते हैं बाकी के पैसे का होता है “बंदरबांट”। लेकिन वह बंदरबांट दो के ही बीच में हुआ तीसरा खाली रह गया। अब तीसरे ने पसड़ मचा दी और उस पसड़ में दो में से एक रोने लगा कि मैंने तो कुछ लिया ही नहीं फिर मुझ पर आरोप क्यों? हालांकि उसने यह कबूल किया कि कुछ पैसा पीने पिलाने में खर्च हुआ लेकिन अब पिया तो साहब ने भी होगा तो निर्दोष कैसे? बाकी का पैसा माना कि एक ही डकार गया जो भी बचा हो 2000,3000,6000 इस से मतलब नहीं ।अब तीसरे ने जो पसड़ मचाई थी उसका रायता पूरे विभाग में फैल गया। अब इन तीनों के बीच में फैसला कौन कराएगा?पहले ने तो कहा चुप रहो, शांत रहो,बैठे रहो,कुछ नहीं होगा। जब जेल से छूटकर अपराधी आएंगे तो देखा जाएगा। पसड़ मचाने वाला आग लगाने की तैयारी में बल्कि यूं कहे कि उसने आग लगा ही दी झुलस गए दयाशंकर वर्मा जी। मतलब साफ है कि तीनों पुलिस के एसआई में से या तो दया शंकर जी बिल्कुल सीधे हैं या बली के बकरे बनाए जा रहे हैं ?या तो सामान खरीदने गए दोनों शख्स बेईमानी का धंधा भी इमानदारी से नहीं करते। जबकि बेईमानी का धंधा इमानदारी से होना चाहिए। अब पसड़ तो इसी बात की है खाने को नहीं मिला तो खाने भी नहीं देंगे। मतलब हम भी चैन से नहीं तो तुम भी चैन से नहीं।