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अंग्रेजी माध्यम बनाम हिंदी माध्यम शिक्षा

अंग्रेजी माध्यम बनाम हिंदी माध्यम शिक्षा

सदियों से हिंदी माध्यम में पढ़ते हुए लोगों के अनुभव बतलाते हैं,की पठन और पाठन का आधार हमारी अपनी संस्कृति में गुरु और शिष्य शिक्षक एवं विद्यार्थी के बीच के रिश्तो पर निर्भर करते हैं, याद हो 10 या 15 साल पहले बेशर्म के हरे डंडे नीचे से ऊपर तक अपनी छाप विद्यार्थियों के बदन पर छोड़ जाते थे। लेकिन ना स्कूल बंद होता था।ना ही पुलिस आती थी। और ना ही अभिभावक लहंगा उठा कर नाचते थे। जब से अंग्रेजी माध्यम ने अपने पैर पसारने चालू किए यह वह राक्षस है,जिसने हमारी संस्कृति का भक्षण कर लिया हमारे नैतिक मूल्यों को अपना निवाला बना लिया आश्चर्य की बात है,10 रुपये में बिकने वाली किताब आज 1 सौ 50 रुपए में बिक रही है,ज्ञान के लिए अच्छे कागज अच्छी प्रिंटिंग और रंगीन चित्रों की आवश्यकता नहीं होती आखिरकार शिक्षा को औद्योगिक रूप देने वाले संस्कार कहां से आए किसने दिए? बहुत अधिक सोचने पर पता चल जाएगा कि इस अंग्रेजी माध्यम ने शिक्षक और विद्यार्थी के रिश्तो पर कुठाराघात किया है,आज एक विद्यालय जो कभी एक परिवार का रूप हुआ करता था एक फैक्ट्री के रूप में तब्दील हो गया है,जो उत्पादकता की शुद्धता की गारंटी दिए बिना ही लोगों की या यूं कहें कि आम जनमानस की औसत आय के चारों ओर सर्प के रूप में कुंडली मार कर बैठा हुआ है,जिसने आम आदमी की आर्थिक व्यवस्था को ही चौपट नहीं किया।बल्कि इन प्राइवेट स्कूलों के अध्यापकों से लेकर आम अभिभावकों तक की मानस स्थिति को विक्षिप्त सा कर दिया है,ना तो अध्यापक अपनी सैलरी से लेकर मैनेजमेंट के नियमावली से संतुष्ट हैं,और ना ही अभिभावक दोनों यानी प्राइवेट स्कूल के अध्यापक और अभिभावक अपनी अपनी स्थितियों से फ्रस्ट्रेटेड है,और इसी फ्रस्टेशन के चलते अध्यापक एक अच्छा अध्यापक नहीं सिद्ध हो पाता बल्कि विद्यालय नामक फैक्ट्री में एक मशीन बनकर रह जाता है,उधर अभिभावक फ्रस्ट्रेशन की स्थिति में ना तो एक अच्छा अभिभावक रह पाता है, और ना ही एक अच्छा इंसान क्यों स्कूल द्वारा लूटे जाने के बाद बची खुची सैलरी में उसे अपने अन्य दैनिक कार्यों की पूर्ति करनी पड़ती है,और सामाजिक दिखावे के जलसे में शामिल होने के लिए या तो उसे चोरी करनी पड़ती है,या अपने से नीचे वालों का खून पीना पड़ता है,ऐसे में पूरा सिस्टम ही डिस्टर्ब नजर आता है, कारण केवल एक नैतिक मूल्यों से परहेज रखने वाले अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा का प्रचार एवं प्रसार हमारी अपनी हिंदी माध्यम शिक्षा थी जिसने गुरु का सम्मान करना सिखाया माता पिता से प्रेम करना सिखाया नैतिकता पर जोर देते हुए अंग्रेजी, विज्ञान, गणित, समाजशास्त्र,अर्थशास्त्र, दर्शनशास्त्र इत्यादि सभी विषयों का ज्ञान दिया अर्थात हमें एक अच्छा मानव बनाया हमारे अंदर मानवता का समावेश किया आज हम अंग्रेजी माध्यम की सीढ़ी पर चढ़ते हुए मानव से मशीन बनते जा रहे हैं,और आप सभी प्रबुद्ध पाठकों को अच्छी तरह पता है,कि किसी भी मशीन के पास ना तो सोचने के लिए बुद्धि होती है, नाही भावनाओं के प्रवाह के लिए हृदय होता है,और ना ही प्रेम को समझने वाला मन होता है,तो अगर आज हम मानवीय मूल्यों के ह्रास की बात करते हैं,चारों तरफ समाज में व्याप्त अनाचार की बात करते हैं,तो इसके लिए हम स्वयं उत्तरदाई हैं,


आश्चर्य की बात है,कि आज हम अपने खाने पीने की वस्तुओं तक में यह सोचने की जहमत नहीं उठाते हैं, कि क्या हमारे शरीर के लिए उपयुक्त है,क्या नहीं और हम जो भी पदार्थ प्रयोग कर रहे हैं,वह शुद्ध है, अथवा नहीं लीजिए साहब हम तो बस पैसे छापने में पड़े हैं, और उस पैसे से सब कुछ खरीद लेना चाहते हैं,ध्यान रखिए पैसे का प्रयोग आपको सब कुछ नहीं दिला सकता यदि मेरी बात पर आप यकीन रखें तो कभी  किसी बड़े अस्पताल के आईसीयू वार्ड में 24 घंटे गुजार कर देख लो पैसा किसी को कुछ नहीं दे सकता केवल प्रेम,सम्मान और आत्मीयता ही मानव के काम आती है,मानव को मानव बनाती है, जो हमारी अपनी संस्कृति से ही हमें मिल सकती है,यानी हिंदी माध्यम शिक्षा पद्धति अपनाकर ही हम मानव बन सकते हैं,और अपने आप को मशीन बनने से बचा भी सकते हैं,


एडीटर – डॉ0 आर्य प्रकाश मिश्रा

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Shushil Nigam

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